बदलते दौर में आ रहा बदलाव, विलुप्त हो रही पशुधन पूजने की प्रथा।
पशु धन पूजने की वर्षों पुरानी परंपरा ग्रामीण क्षेत्रों में भी सीमित।

 (सत्यनारायण वैष्णव)

पहले जिस उत्साह से दीपावली के एक दिन बाद पशु धन यानी गाय बैलों की पूजा हुआ करती थी, वह अब विलुप्त होने की कगार पर पहुंचे गई है। बैल पूजा में अब लोग उत्साह नहीं दिखाते। खासकर मालवा के शहरी क्षेत्र में दीपावली के एक दिन बाद बैल पूजा का काफी महत्व है। इसलिए मालवा क्षेत्र में इसकी तैयारियों दीपावली के 3 दिन पहले शुरु हो जाती थी, लेकिन जैसे जैसे आधुनिकीकरण हुआ, वैसे वैसे बैल पूजा कम हो गई। वर्तमान में नौबत यह आ गई कि प्रदेश के  गिने चुने किसानों के यहां ही  बैल पूजा होती हैं।

खेती की आधुनिकता से आया बदलाव :

 राजगढ़ जिला मालवा क्षेत्र का कृषि प्रधान है। ऐसे में यहां पशु पालन का भी अपना एक अलग महत्व है। यहीं कारण है कि यहां बैल पूजा को काफी उत्साह से मनाया जाता था, लेकिन कुछ वर्षों से लोग बैल पूजा में उत्साह नहीं दिखा रहे है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि जिले के अधिकांश  इलाकों में खेती ट्रैक्टर से की जाने लगी है। बैल की जगह अब किसान ट्रैक्टर का उपयोग ज्यादा करने लगे है। जिससे बैलों का उपयोग कम हो गया। धीरे धीरे लोग घरों में बैल पालने से परहेज करने लगे, क्योंकि बैलों से खेत की हंकाई व जुताई करने में मेहनत और समय दोनों ज्यादा लगते है, जबकि ट्रैक्टर से वही काम आसानी से कुछ घंटों में बिना मेहनत के हो जाता है। इस तरह ग्रामीण इलाकों में खेती  का काम ट्रैक्टर से किया जाने लगा और इस तरह बैलों की उपयोगिता कम हो गई।

नहीं दिखता उत्साह :

दीपावली के बाद यानी गोवर्धन पूजा के साथ पशु धन पूजे जाते थे। जिनमें गाय, बैल, बकरी के अलावा अन्य पालतू पशु शामिल है। तत्कालीन समय में दीपावली के बाद बैलों व गायों को पूजना  शुभ माना जाता था, लेकिन अब यह परंपरा विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई है। किसान व पशु पालक अब इनकी पूजा करने में उत्साह नहीं दिखाते।

विलुप्त हो रही परंपरा :

आधुनिकीकरण ने हमसे पशु प्रेम छीन लिया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण बैल पूजा नहीं होना। मशीनरी के ज्यादा उपयोग से बैलों का महत्व किसानों के लिए खत्म हो गया। बैलों की जगह किसानों की पहली पसंद ट्रैक्टर है। यही कारण है कि अब बैलों का पालन नहीं होता और इसी कारण कुछ ही गिने चुने ग्रामीण इलाके बचे है, जहां बैल पूजे जाते है।

दीपावली के दो दिन पहले बैलों को नहलाया जाता था। उन्हें बेड़ों व फूल, मालाओं से श्रंगारित करते थे। बैलों की सिंग पर कलर लगाया जाता था। मेहंदी लगाई जाती थी जब बैल व गाय पूजा के बिना दीपावली पर्व अधूरा रहता था, लेकिन अब इस उत्साह को आधुनिकीकरण की नजर लग गई  हैं।